पिछले हफ्ते मैं किशनगंज रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 2 पर मैं जब ट्रैन का इंतज़ार कर रहा था तो मेरी नज़र अचानक "बैलगाड़ी" के दो चक्कों (लकड़ी के पहियों) पर पड़ी! पास खड़े व्यक्ति से पूछा तो पता चला कि वे पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं और किशनगंज जिला मुख्यालय के समीप सटे 'चकला' गाँव से चक्के खरीद कर ले जा रहे हैं! थोड़ी देर में मेरी ट्रैन आ गई और मैं अपनी मंज़िल की तरफ रवाना हो गया, लेकिन करीब एक घंटे के सफर में मुझे कई बार चक्कों के बारे में ख्याल आया! चक्कों को बारे सोचकर एहसास हुआ कि हम आधुनिकता के इस दौर में भले ही हम इतनेआगे निकल चुके हैं की ये चक्के विलुप्ता की कगार पर पहुँच चुके हैं! ज़मीन से जुड़े एक साधारण व्यक्ति होने के नाते मैंने सोचा की इससे पहले ये चक्के / पहिये हमारे बीच से गायब हो जायें, क्यूँ ने अपने विचारों को चक्के की ही ज़ुबान में व्यक्त की जाए ताकि आने वाली पीढ़ी कम-से-कम इंटरेनट की इस दुनिया में अपने विरासत के बारे में पढ़कर बहुमूल्य जानकारी ले सकती है! तो पेश है "चक्के" की कहानी, "चक्के की ज़ुबानी" !
मैं चक्का हूँ जी हाँ लकड़ी का चक्का (पहिया), चकला का चक्का, किशनगंज का चक्का, सीमांचल का चक्का, आपका अपना चक्का! आज इस अत्याधुनिक एवं तेज़ रफ़्तार जिंदगी में जहाँ हर तरफ पेट्रोल / ड़ीजल / सीएनजी / बैट्री पर चलने वाली गाड़ियों का चलन है, कभी "चकला का चक्का" के नाम से मशहूर मैं अपनी कहानी बयां करने आया हूँ! पिछले दशक से पहले तक मेरी यानि लकड़ी के चक्के काफी धूम थी! भले ही मेरी बनावट काफी सरल (साधारण) है लेकिन मेरी विशेषताएँ काफी बहुमूल्य और लाभप्रद हैं! ज़रा गौर मेरी बनावट पर कीजिये! मेरे जन्मदाता बढ़ई होते हैं जो अपनी कुशलता से लकड़ी के कुंदे को गोलाकार में काटकर काफी बारीकी से छीलते हैं! उसके बाद लकड़ी के ही एक धुरी के सहारे मुझे लकड़ी की पतले - पतले समान आकार के डंडों के सहारे एक बड़े गोलाकार लकड़ी के ही फ्रेम से चक्के की शक्ल दी जाती है! मेरे आकार को मज़बूती और टिकाऊपन प्रदान करने के लिए लोहे का हाल (फ्रेम) भट्टी में गर्म करके चढ़ाया जाता है और इस तरह बैलगाड़ी का चक्का / पहिया तैयार हो जाता है!
मेरा इस्तेमाल खासतौर पर बैल गाड़ियों के लिए होता था, यूँ कहें कि मेरे बिना बैलगाड़ी की कल्पना करना नामुमकिन था! मैं और बैलगाड़ी एक दूसरे के पूरक थे और हमारी मदद से लोग एक जगह से दूसरी जगह सफर करते थे या अपने सामान को ढ़ोते थे! वहीँ बैलगाड़ी में बंधे बैलों को तेज़ रफ़्तार चलने और दौड़ने में मैं हमेशा कंधे - से - कंधा मिला कर चलती थी! वहीँ हिंदी, बंगला, आसामी और दूसरे भाषा में बनने वाली फिल्मों के हीरो और हीरोइन भी बैलगाड़ी में सफर करते नज़र आते थे! इसलिए आम हो या खास हर किसी को बैलगाड़ी की जरूरत थी और तरह - तरह से इसका इस्तेमाल करते थे! मुझे भी अपने महत्व पर काफी गर्व होता था और मैं इतरा के कभी - कभी बीच रास्ते सफर के दौरान धोका दे देती थी! लेकिन मेरी मरम्मत करने में मेरे मालिक को आज के बड़ी - बड़ी गाड़ियों के महंगे टायर की तरह ज्यादा जेब ढीली नहीं करनी पड़ती थी और थोड़े से ठोक - ठाक से मैं ठीक हो जाती थी! जहाँ मेरे रख - रखाव में ज्यादा खर्च नहीं पड़ता है, वहीँ दूसरी तरफ पर्यावरण को मैं किसी तरह की हानि नहीं पहुँचाती हूँ! यूँ कहें की मेरा इस्तेमाल "आम के आम गुठलियोँ के दाम" की तरह था और हर कोई खुश था!
वक्त बदला, लोगों की सोच बदली और देश व दुनिया भी तेज़ी से बदलते हुए 'तेज़ रफ़्तार' की तरफ आकर्षित हो गई और धीरे - धीरे मेरा इस्तेमाल और अस्तित्व खतरे में पड़ गया! आज मेरा इस्तेमाल सफर के लिए नहीं के बराबर होता है, वहीँ ट्रैक्टर और दूसरी इंजन से चलने वाली गाड़ियों के प्रचलन मालढुलाई में भी मेरा इस्तेमाल नहीं के बराबर होता है! हो सकता है कि आनेवाले कुछ वर्षों में मेरा अस्तित्व मिट जाये, लेकिन मुझे बनाने वाले कारीगरों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए! उनकी कुशलता और हुनर को देश में ज़रूर पहचान मिलनी चाहिए और यह तभी संभव है जब आप चक्कों को छोटे ही स्तर पर अपने रोज़मर्रा के काम में इस्तेमाल में लाएं! यकीन जानिए आपको काफी सुख और सुकून मिलेगा और आपकी जेब भी हलकी नहीं होगी और सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ेगा! कुछ नहीं कर सकते तो कम-से-कम मेरी इस कहानी को ही दूसरों से शेयर कीजिये ताकि वे मेरे बारे में जान सकें और आने वाली पीढ़ी को "चक्के की कहानी" सुना सकें!